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सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 10

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सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 10 अधिनियम के अंतर्गत अपील ,धारा - 19
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 10 अधिनियम के अंतर्गत अपील (धारा- 19)
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के अंतर्गत धारा 19 में अपील का प्रावधान दिया गया है। किसी भी अधिकार को दिए जाते समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक होता है कि यदि उस व्यक्ति को जिसे वह अधिकार दिया गया है अधिकार प्राप्त नहीं हो तब वे कहां और किसके समक्ष अपील कर सकता है और अपील का महत्व इसलिए भी है क्योंकि निचले स्तर से यदि कोई व्यक्ति व्यथित है तो उसे ऊपरी स्तर के अधिकारियों को इसका संज्ञान देकर न्याय प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए।

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारत के संविधान में उल्लेखित किए गए मौलिक अधिकारों में से एक अधिकार है। इस मौलिक अधिकार को व्यवहार में लाने हेतु ही सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का निर्माण किया गया है। इस अधिनियम में अपील का महत्वपूर्ण स्थान है यदि इस अधिनियम में अपील की व्यवस्था नहीं की जाती तो इस अधिनियम का कोई अर्थ नहीं रह जाता और सभी बातें एक कोरी स्वर्णिम कल्पना होकर रह जाती। इस उद्देश्य से इस अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत अपील को गढ़ा गया है तथा अपीलीय संबंधी प्रक्रिया को व्यवस्थित किया गया है।

इस आलेख के अंतर्गत इसी अपील को समझने का प्रयास किया जा रहा है और धारा 19 पर एक सारगर्भित टीका टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
यह इस अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा 19 का मूल स्वरूप है:-

अपील:-

(1) ऐसा कोई व्यक्ति, जिसे धारा 7 की उपधारा (1) या उपधारा (3) के खण्ड (क) में विनिर्दिष्ट समय के भीतर कोई विनिश्चय प्राप्त नहीं हुआ है या जो, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी के किसी विनिश्चय से व्यथित है, उस अवधि की समाप्ति से या ऐसे किसी विनिश्चय की प्राप्ति से तीस दिन के भीतर ऐसे अधिकारी को अपील कर सकेगा, जो प्रत्येक लोक प्राधिकरण में, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या लोक सूचना अधिकारी की पंक्ति से ज्येष्ठ पंक्ति का है।

परन्तु ऐसा अधिकारी, तीस दिन की अवधि की समाप्ति के पश्चात् अपील को ग्रहण कर सकेगा, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अपीलार्थी समय पर अपील फाइल करने में पर्याप्त कारण से निवारित किया गया था।
(2) जहाँ अपील धारा 11 के अधीन, यथास्थिति, किसी केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या किसी राज्य लोक सूचना अधिकारी द्वारा पर व्यक्ति की सूचना प्रकट करने के लिए किए गए किसी आदेश के विरुद्ध की जाती है वहां संबंधित पर व्यक्ति द्वारा अपील उस आदेश की तारीख से 30 दिन के भीतर की जाएगी।

(3) उपधारा (1) के अधीन विनिश्चय के विरुद्ध दूसरी अपी उस तारीख से, जिसको विनिश्चय किया जाना चाहिए था या वास्तव में प्राप्त किया गया था, नब्बे दिन के भीतर केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को होगी।
परन्तु यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग नब्बे दिन की अवधि की समाप्ति के पश्चात् अपील को ग्रहण कर सकेगा, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अपीलार्थी समय पर अपील फाइल करने से पर्याप्त कारण से निवारित किया गया था।
(4) यदि यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी का विनिश्चय, जिसके विरुद्ध अपील की गई है, पर व्यक्ति की सूचना से संबंधित है तो यथास्थिति केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग उस पर व्यक्ति को सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर देगा।
(5) अपील संबंधी किन्हीं कार्यवाहियों में यह साबित करने का भार कि अनुरोध को अस्वीकार करना न्यायोचित था, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी पर, जिसने अनुरोध से इंकार किया था, होगा।
(6) उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन किसी अपील का निपटारा, लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से अपील की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर या ऐसी विस्तारित अवधि के भीतर जो उसके फाइल किए जाने की तारीख से कुल पैंतालीस दिन से अधिक न हो, किया जाएगा।
(7) यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग का विनिश्चय आबद्धकर होगा।
(8) अपने विनिश्चय में, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को निम्नलिखित की शक्ति है:-
(क) लोक प्राधिकरण से ऐसे उपाय करने की अपेक्षा करना, जो इस अधिनियम के उपबंधों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो, जिनके अंतर्गत निम्नलिखित भी हैं-
(i) सूचना तक पहुँच उपलब्ध कराना, यदि विशिष्ट प्ररूप में ऐसा अनुरोध किया गया है।
(ii) यथास्थिति केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी को नियुक्त करना।
(iii) कतिपय सूचना या सूचना के प्रवर्गों को प्रकाशित करना।
(iv) अभिलेखों के अनुरक्षण, प्रबंध और विनाश से संबंधित अपनी पद्धतियों में आवश्यक परिवर्तन करना।
(v) अपने अधिकारियों के लिए सूचना के अधिकार के संबंध में प्रशिक्षण के उपबंध को बढ़ाना।
(vi) धारा 4 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के अनुसरण में अपनी वार्षिक रिपोर्ट उपलब्ध कराना।
(ख) लोक प्राधिकारी से शिकायतकर्ता को, उसके द्वारा सहन की गई किसी हानि या अन्य नुकसान के लिए प्रतिपूरित करने की अपेक्षा करना।
(ग) इस अधिनियम के अधीन उपबंधित शास्तियों में से कोई शास्ति अधिरोपित करना।
(घ) आवेदन को नामंजूर करना।
(9) यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग शिकायतकर्ता और लोक प्राधिकारी को, अपने विनिश्चय की, जिसके अंतर्गत अपील का कोई अधिकार भी है, सूचना देगा।
(10) यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग, अपील का विनिश्चय ऐसी प्रक्रिया के अनुसार करेगा, जो विहित की जाए।
यह धारा अपील की प्रक्रिया के लिए प्रावधान करती है। प्रथम अपील आक्षेपित आदेश को प्राप्त करने से 30 दिनों के भीतर केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी, यथास्थिति, की श्रेणी से उच्चतर श्रेणी धारण करने वाले अधिकारी के समक्ष दाखिल होती है। दूसरी अपील केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग, यथास्थिति के समक्ष दाखिल होती है। अपील का समय प्रथम अपोलीय प्राधिकारी से आदेश को प्राप्ति की तारीख से नब्बे दिन है।
अपीलीय प्राधिकारी को नियत अवधि के अवसान के पश्चात् अपील ग्रहण करने की शक्ति होगी, यदि उन्हें समाधान है कि अपील दाखिल करने में ऐसे विलम्ब के लिए युक्तियुक्त कारण है। प्रथम अपीलीय प्राधिकारी को तीस दिनों के भीतर अपील का निस्तारण करना चाहिए और द्वितीय अपील प्राधिकारी को 45 दिनों के भीतर अपील का निस्तारण करना चाहिए। प्रथम और द्वितीय अपील दाखिल करने के लिए अधिकार पर पक्षकार को उपलब्ध है, यदि ईप्सित सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित है।
यह धारा अपीलीय प्राधिकारी/फोरम से यथासम्भव शीघ्र विवाद पर विचार करने और निस्तारण करने के लिये प्रावधान करती है।
मुख्य सूचना आयुक्त की शक्ति:-

लोक प्राधिकारी या तो सूचना देने या सूचना प्रदान करने के लिये कर्तव्य से आबद्ध है। अधिनियम के प्रावधानों के अधीन मुख्य सूचना आयुक्त अतिरिक्त अनुरोध जैसे ध्वस्तीकरण इत्यादि को ध्वस्तीकरण के आदेश को पारित करने के लिये प्रदान नहीं कर सकता, जो पूर्ण रूप से मुख्य सूचना अधिकारिता के परे है।
अपीलों को निर्णीत करते समय राज्य सूचना आयुक्त की शक्तियां:-

यह किसी लोक प्राधिकारी को ऐसा कोई कदम उठाने के लिए निर्देश जारी कर सकता है, जैसे अधिनियम के अधीन जारी किये गये निर्देशों का पालन करने के लिये सूचना रखने वाले व्यक्ति को प्रपीड़ित करने के लिये उपयुक्त हो।
अपील करने का अधिकार:-

राज्य लोक सूचना अधिकारी द्वारा पारित आदेश से व्यक्ति को अपील दाखिल करने का अधिकार है। यह आदेश मो० वारिस बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल ए आई आर 2011 (एस ओ सी) 138 (कलकत्ता) के मामले में दिया गया है।
अपीलार्थी ने इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में कि चाही गई सूचना उसे प्रदत्त कर दी गई है अपील को वापस से लिया। इस परिस्थिति में अपीलीय प्राधिकारी अपील से व्यवहार नहीं कर सकता और सूचना अधिकारी के विरुद्ध शास्ति अधिरोपित नहीं कर सकता।
अपील का अधिकार:-

अपील का अधिकार संविधि का सृजन है। यह मूल्यवान विधिक अधिकार है, जो व्यक्ति व्यक्ति को उच्चतर फोरम के समक्ष उसकी सहायता का आश्रय लेने के लिए तथा निम्नतर फोरम की त्रुटियों को सुधरवाने के लिए प्रदान किया गया है।

अधिनियम की धारा 19 (1) अपील के ऐसे अधिकार का प्रयोग ऐसे व्यक्ति द्वारा किये जाने के लिए प्रदान करती है, जो व्यक्ति व्यक्ति को जिसने अधिनियम की धारा 6 के अधीन सूचना प्राप्त करने के लिए निवेदन किया था, को सूचना प्रस्तुत करने के लिए केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी अथवा राज्य लोक सूचना अधिकारी, जैसी भी स्थिति हो, द्वारा इन्कारी अथवा कल्पित इन्कारी के कारण व्यक्ति हो।

अधिनियम की धारा 7, 19 तथा 20 सपठित सूचना का अधिकार नियमावली, 2012 के नियम 8 उत्तरप्रदेश सूचना का अधिकार नियमावली, 2015 के नियम 7 तथा उत्तरप्रदेश राज्य सूचना आयोग (अपील की प्रक्रिया) नियमावली, 2006 के नियम 3 का वाचन यह अप्रतिरोध निष्कर्ष अग्रसर करता है कि "अधिनियम, 2005" की धारा 7 के अधीन पारित प्रत्येक आदेश के विरुद्ध अथवा प्रत्येक कल्पित इनकारी के विरुद्ध सक्षम प्राधिकारी के समक्ष "अधिनियम, 2005" की धारा 19 (1) के अधीन पृथक् प्रथम अपीलें होंगी।
अपील का अधिकार सांविधिक विधिक अधिकार है:-

यह सुनिश्चित विधि है कि अपील का अधिकार संविधि का सृजन है। इसलिये अपील संविधि द्वारा केवल यथोपवन्धित रीति में ही दाखिल की जा सकती है। मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक अन्य बनाम मनिपुर राज्य एवं एक अन्य, (2011) 15 एस सी सी 1 (पैरा 45, 49 और 51) के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम की धारा 18 तथा 19 के प्रावधानों पर विचार किया था और निम्न प्रकार से अभिनिर्धारित किया था:-
इसके अलावा अधिनियम की धारा 19 के अधीन प्रक्रिया को जब धारा 18 से तुलना की जाती है, तब उस व्यक्ति को, जिसे वह सूचना इन्कार कर दी गयी है, जिसकी उसने मांग की है, के हित को संरक्षित करने के लिये विभिन्न रक्षोपाय किये गये हैं। इस सम्बन्ध में धारा 19 (5) को निर्दिष्ट किया जा सकता है। धारा 19 (5) निवेदन की इन्कारी को न्यायसंगत ठहराने का भार सूचना अधिकारी पर अधिरोपित करती है। इसलिये इन्कारों को न्यायसंगत ठहराना अधिकारी का कर्तव्य होता है। धारा 18 में ऐसा कोई रक्षोपाय नहीं है। इसके अलावा धारा 19 के अधीन प्रक्रिया समयबद्ध होती है, परन्तु धारा 18 के अधीन कोई परिसीमा विहित नहीं की गयी है। इसलिये धारा 18 और धारा 19 के मध्य दोनों प्रक्रियाओं में से एक धारा 19 के अधीन है, जो उस व्यक्ति के लिये अधिक लाभदायक होती है, जिसे सूचना की पहुंच से इन्कार किया गया है।
एक अन्य पक्ष भी है। धारा 19 के अधीन प्रक्रिया अपीलीय प्रक्रिया होती है। अपील का अधिकार सदैव संविधि का सृजन होता है। अपील का अधिकार उच्चतर फोरम के समक्ष उसकी सहायता का आश्रय लेने के लिये प्रवेश करने तथा निम्नतर फोरम की त्रुटियों को सुधारने के लिये हस्तक्षेप करने का अधिकार होता है। यह बहुत मूल्यवान अधिकार होता है। इसलिये जब संविधि अपील पर ऐसा अधिकार प्रदत करती है, तब उसका प्रयोग ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिये, जो सूचना प्रस्तुत किये जाने की इन्कारों के कारण द्वारा व्यक्ति हो।
इसलिए यह न्यायालय अपीलार्थीगण को आज से 4 सप्ताह की अवधि के भीतर दिनांक 9.2.2007 और 19.5.2007 के आवेदनों के माध्यम से प्राप्त करने के लिये अपने द्वारा दो निवेदनों के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 19 अधीन अपीलें दाखिल करने के लिये निर्देशित करता है। यदि अपीलार्थीगण द्वारा विधिक प्रक्रिया का पालन करते हुये ऐसी अपील दाखिल की जाती है, तब उस पर अपीलीय प्राधिकारी द्वारा परिसीमा अवधि पर बल दिये बिना गुणावगुण पर विचार किया जाना चाहिये।"
मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक अन्य (उक्त) के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय का पूर्वोक्त निर्णय पूर्ण रूप से यह स्पष्ट करता है कि जब सूचना प्राप्त करने के लिये दो निवेदन किये गये थे, तब उच्चतम न्यायालय ने दोनों निवेदनों के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 19 के अधीन अपील दाखिल करने के लिये निर्देशित किया था।
नामित शर्मा बनाम भारत संघ, (2013) 1 एस सी सी 745 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने प्राधिकारियों के कार्य की प्रकृति तथा अधिनियम की धारा 18, 19 और 20 पर विचार किया था और निम्न प्रकार से अभिनिर्धारित किया था:-
(क) कार्य की प्रकृति
सूचना आयोग निकाय के रूप में अपने अधिकारियों के माध्यम से व्यापक मात्रा में कार्यों, जिसमें न्यायनिर्णायक, पर्यवेक्षणकारी के साथ ही साथ दाण्डिक कार्य शामिल हैं, को सम्पन्न करता है। सूचना की पहुंच विधिक अधिकार है। यह अधिकार, जैसा कि ऊपर इंगित किया गया है, कतिपय संवैधानिक तथा विधिक परिसीमाओं के अधीन होता है। अधिनियम, 2005 " स्वयं उन्मुक्त सूचना के साथ ही साथ ऐसे क्षेत्रों को अभिव्यक्त करता है, जहां अधिनियम निष्प्रभावी होगा। केन्द्रीय तथा राज्य सूचना आयोगों में कतिपय परिस्थितियों के अधीन तथा विनिर्दिष्ट स्थितियों में सूचना प्रदान करने से इन्कार करने की शक्ति निहित की गयी है। सूचना, जिसमें पर-पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त होता है, के प्रकटन के लिये सम्बद्ध प्राधिकारी के लिये पर पक्षकार को नोटिस जारी करने की अपेक्षा की गयी है, जो प्रत्यावेदन प्रस्तुत कर सकता है और ऐसे प्रत्यावेदन पर " अधिनियम, 2005 " के प्रावधानों के अनुसार विचार किया जाना है।
भारत में विधि को यह स्थिति कुछ अन्य देशों में विद्यमान विधि को स्थिति के स्पष्ट विरोध में है, जहां पर पक्षकार को अन्तर्ग्रस्त करने वाली सूचना को उस पक्षकार को सम्मति के बिना प्रकट नहीं किया जा सकता है।

हालांकि प्राधिकारी यह कथन करते हुये लेखबद्ध कारणों में ऐसे प्रकटन को निर्देशित कर सकता है कि लोकहित प्राइवेट हित पर अधिक भारी हैं। इस प्रकार इसमें न्यायनिर्णायक प्रक्रिया अन्तग्रस्त होती है, जहां पक्षकारों को सुना जाना आवश्यक होता है, उपयुक्त निर्देश जारी किया जाना होता है, मस्तिष्क के सम्यः प्रयोग पर तथा वैध कारणों से आदेश पारित किया जाना आवश्यक होता है।

अधिनियम, 2005" के प्रावधानों के अधीन सम्बद्ध प्राधिकारियों द्वारा शक्तियों का प्रयोग तथा आदेशों को पारित करना मनमाना नहीं हो सकता है। इसे नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त तथा ऐसे प्राधिकारी द्वारा विकसित की गयी प्रक्रिया के अनुरूप होना है।
नैसर्गिक न्याय के तीन अपरिहार्य पक्ष होते हैं, अर्थात् सूचना प्रदान करना, सुनवाई करना तथा कारणयुक्त आदेश पारित करना। इसे विवादित नहीं किया जा सकता है कि "अधिनियम, 2005" के अधीन प्राधिकारीगण तथा अधिकरण अर्द्धन्यायिक कार्यों का निर्वहन कर रहे हैं।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की योजना के अधीन धारा 5 के निबन्धनों में प्रत्येक लोक प्राधिकारी, दोनों राज्य तथा केन्द्र में, से सूचना के अधिकार को इस अधिनियम के अधीन मांगी गयी सूचना को प्रस्तुत करके और अधिक प्रभावी बनाने तथा प्रभावी बनाने के लिये लोक सूचना अधिकारियों को नामित करने की अपेक्षा करती है।

सूचना अधिकारी ऐसी सूचना प्रदान करने से इन्कार कर सकता है, जो आदेश नामित वरिष्ठ अधिकारी के समक्ष धारा 19 (1) के अधीन अपीलीय होता है, जिससे पक्षकारों को सुनने तथा मामले को विधि के अनुसार निर्णीत करने की अपेक्षा की जाती है। यह प्रथम अपील होती है। इस अपीलीय प्राधिकारी के आदेश के विरुद्ध "अधिनियम, 2005" की धारा 19 (3) के निबन्धनों में केन्द्रीय सूचना आयोग अथवा राज्य सूचना आयोग, जैसी भी स्थिति हो, के समक्ष द्वितीय अपील होती है।
विधायिका ने अपने कौशल से दो अपीलों के लिये प्रावधान किया है। जहां न्यायनिर्णायक फोरम अधिक होते हैं, वहां न्यायिक रूप से, निष्पक्षता के नियम का पालन करने की तथा विहित प्रक्रिया के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा अधिक होती है और ऐसी किसी विहित प्रक्रिया अभाव में नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा होती है।
ऐसे अधिकरण से सार्वजनिक प्रत्याशा भी अधिक होती है। इन निकायों द्वारा सम्पन्न किये गये न्यायनिर्णायक कार्य गम्भीर प्रकृति के होते हैं। आयोग द्वारा पारित किया गया आदेश अन्तिम तथा बाध्यकारी होता है और उसे संविधान के क्रमश: अनुच्छेद 226 और/अथवा अनुच्छेद 32 के अधीन न्यायालय की अधिकारिता के प्रयोग में केवल उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय के समक्ष ही प्रश्नगत किया जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की योजना तथा विविध प्रकार के कार्यों का विश्लेषण करता है, जो सूचना आयोग से अपने कार्यों का निर्वहन करते समय करने की अपेक्षा की जाती है, तब निम्नलिखित लक्षण स्पष्ट हो जाते हैं :-
1)- यह हमारे समक्ष ऐसा विवाद है, जो इसे निर्णीत करता है। ब्लैक को विधि शब्दकोश (आठवां संस्करण) के अनुसार "विवाद" का तात्पर्य "वादकरण का प्रकार; विरोध अथवा विवाद" होता है। एक पक्षकार विशेष सूचना के अधिकार का प्रकथन करता है, अन्य पक्षकार उसे इन्कार करता है अथवा उसका इस तरह से विरोध भी करता है कि वह उसक संरक्षित अधिकार का अतिलंघन था, तब यह ऐसा विवाद उद्भूत करता है, जिसे आयोग द्वारा विधि के अनुसार निर्णीत किया जाना है और इस प्रकार उसे सामान्य प्रशासनिक कार्य" के रूप में नहीं कहा जा सकता है। इसलिये यह स्पष्ट हो जाता है कि अपीलीय प्राधिकारी तथा आयोग इस विवाद पर इस अर्थ में विचार करते हैं, जिसमें इसे विधिक भाषा में समझा जाता है।
2)- यह न्यायनिर्णायक कार्यों को सम्पन्न करता है और उससे प्रभावित पक्षकार को सुनवाई का अवसर प्रदान करने तथा अपने आदेशों के लिये कारणों को अभिलिखित करने की अपेक्षा को जाती है। लोक सूचना अधिकारी के आदेश प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष अपीलीय होते हैं और प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के आदेश सूचना आयोग के समक्ष अपीलीय होते हैं, जो तय उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के समक्ष न्यायिक पुनर्विलोकन की उसकी असाधारण शक्ति के प्रयोग में चुनौती के लिये खुले होते हैं।
3)- यह न्यायनिर्णायक प्रक्रिया है, जो विवादों के प्रशासनिक अवधारण के समान नहीं होती है, परन्तु यह प्रकृति में अवधारण की न्यायिक प्रक्रिया के समान होती है। सम्बद्ध प्राधिकारी से न केवल यह निर्णीत करने की अपेक्षा की जाती है कि क्या मामला किसी अपवाद के अधीन आच्छादित था अथवा ऐसे किसी संगठन से सम्बन्धित था, जिसे "सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" लागू नहीं होता है, वरन् विधिक तथा संवैधानिक प्रावधानों को लागू करके यह निर्धारित करने की अपेक्षा की जाती है कि क्या सूचना के अधिकार का प्रयोग एकान्तता के अधिकार में अतिसंचन की कोटि में आता है। विधि का ऐसा सूक्ष्म अन्तर होने के कारण ऐसे मामलों में विधिक सिद्धान्तों का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
4)- सम्बद्ध प्राधिकारी दाण्डिक शक्तियों का प्रयोग करता है और व्यतिक्रमी पर " सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की धारा 20 के अधीन यथा-अनुचिन्तित शास्ति अधिरोपित कर सकता है। इसे अन्वेषणकारी तथा पर्यवेक्षणकारी कार्यों को सम्पन्न करना होता है। इससे व्यतिक्रमियों, जिसमें धारा 20 (2) के निबन्धनों में सेवा में व्यक्ति शामिल है, के विरुद्ध रिपोर्ट दे सकने तथा अनुशासनिक कार्यवाही की सिफारिश कर सकने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों तथा सेवा विधि के विधिशास्त्र को प्रयोज्य सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने के लिये अपेक्षा की जाती है।
5)- आयोग की कार्यप्रणाली सिविल न्यायालयों की कार्यप्रणाली के अनुरूप है और इसमें अभिव्यक्त रूप से सिविल न्यायालय की सीमित शक्तियां निहित की गयी हैं। इन शक्तियों का प्रयोग तथा ऊपर विचार-विमर्श किये गये कार्यों का निर्वहन इन प्राधिकारियों की कार्यप्रणाली को न केवल न्यायिक और/अथवा अर्द्धन्यायिक कार्यप्रणाली कर रंग प्रदान करता है, वरन् आयोग में सिविल न्यायालय के आवश्यक पाशों को भी विहित करता है।
धारा 20 दाण्डिक प्रावधान है। यह केन्द्रीय अथवा राज्य लोक सूचना आयोग को ऐसे लोक सूचना अधिकारी के विरुद्ध शास्ति अधिरोपित करने के साथ ही साथ अनुशासनिक कार्यवाही करने को सिफारिश करने के लिये सशक्त करती है, जिसने उसकी राय में बिना किसी युक्तियुक्त कारण से इस धारा में विनिर्दिष्ट कोई कृत्य अथवा लोप कारित किया है।
उक्त प्रावधान यह प्रदर्शित करता है कि आयोग की कार्यप्रणाली केवल प्रशासनिक ही नहीं है, वरन् प्रकृति में अर्द्धन्यायिक है। यह ऐसी शक्तियों तथा कार्यों का प्रयोग करता है, जो स्वरूप में न्यायनिर्णायक तथा प्रकृति में विधिक होती है।

इस प्रकार विधि की अपेक्षा, विधिक प्रक्रिया तथा संरक्षण प्रकट रूप से आवश्यक होंगे। आयोग द्वारा अर्द्धन्यायिक विवेकाधिकार का सबसे अच्छा प्रयोग संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन अन्तर्निहित संरक्षणों के विरुद्ध संविधान के अनुच्छेद 19 के अधीन मान्यता प्राप्त सूचना के अधिकार को सुनिश्चित करना तथा प्रभावी बनाना है।
सूचना आयोग की प्रथम अपीलीय प्राधिकारी में अपीलें सुनने को शक्ति प्राप्त है और इस प्रकार इसे इस बात की जांच करनी है कि क्या अपीलीय प्राधिकारी और लोक सूचना अधिकारों का भी आदेश सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के प्रावधानों तथा संविधान द्वारा अधिरोपित परिसीमाओं के अनुरूप है। इस पृष्ठभूमि में किसी भी न्यायालय को यह अभिनिर्धारित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हो सकती है. कि सूचना आयोग सिविल न्यायालय का पाश रखने वाले अधिकार के समान है और यह अर्द्धन्यायिक कार्यों को सम्पन्न कर रहा है।
इस अधिनियम के विभिन्न प्रावधान विधि की इस अप्रश्नास्पद प्रतिपादना के स्पष्ट संकेतक हैं कि आयोग न्यायिक अधिकरण, न कि अनुसचिवीय अधिकरण है। यह महत्वपूर्ण भाग है तथा अनुसचिवीय अधिकरण, जो अधिक प्रभावित तथा नियंत्रित होता है और प्रशासन की मशीनरी के अनुसार कार्यों को सम्पन्न करता है, से भिन्न न्याय प्रशासन से संलग्न प्रणाली का भाग है

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 12 यह अधिनियम कुछ संगठनों को लागू नहीं होना (धारा- 24)
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के अंतर्गत कुछ संगठनों को इस अधिनियम से छूट प्रदान की गई है जिनका उल्लेख इस अधिनियम की दूसरी अनुसूची के अंतर्गत किया गया है। धारा 24 में इस बात का उल्लेख किया गया है कि कुछ संगठन ऐसे हैं जिन्हें इस अधिनियम से छूट प्रदान की गई। यह अधिनियम की महत्वपूर्ण धाराओं में से एक धारा है।
यहां इस आलेख में इस धारा पर टिका प्रस्तुत किया जा रहा है और उससे संबंधित कुछ अदालतों के न्याय निर्णय भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
अधिनियम का कतिपय संगठनों को लागू न होना:-
(1) इस अधिनियम में अंतर्विष्ट कोई बात, केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित आसूचना और सुरक्षा संगठनों को, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट है या ऐसे संगठनों द्वारा उस सरकार को दी गई किसी सूचना को लागू नहीं होगी :
परन्तु भ्रष्टाचार और मानव अधिकारों के अतिक्रमण के अभिकथनों से संबंधित सूचना इस उपधारा के अधीन अपवर्जित नहीं की जाएगी। परन्तु यह और कि यदि मांगी गई सूचना मानवाधिकारों के अतिक्रमण के अभिकथनों से संबंधित है तो सूचना केन्द्रीय सूचना आयोग के अनुमोदन के पश्चात् ही दी जाएगी और धारा 7 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसी सूचना अनुरोध को प्राप्ति के पैंतालीस दिन के भीतर दी जाएगी।
(2) केन्द्रीय सरकार राजपत्र में किसी अधिसूचना द्वारा अनुसूची का उस सरकार द्वारा स्थापित किसी अन्य आसूचना या सुरक्षा संगठन को उसमें सम्मिलित करके या उसमें पहले से विनिर्दिष्ट किसी संगठन का उससे लोप करके, संशोधन कर सकेगी और ऐसी अधिसूचना के प्रकाशन पर ऐसे संगठन को अनुसूची में, यथास्थिति, सम्मिलित किया गया या उसका उससे लोप किया गया समझा जाएगा।
(3) उपधारा (2) के अधीन जारी की गई प्रत्येक अधिसूचना संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी।
(4) इस अधिनियम की कोई बात ऐसी आसूचना और सुरक्षा संगठनों को लागू नहीं होगी, जो राज्य सरकार द्वारा स्थापित ऐसे संगठन हैं, जिन्हें वह सरकार समय-समय पर राजपत्र में अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे:
परन्तु भ्रष्टाचार और मानव अधिकारों के अतिक्रमण के अभिकथनों से संबंधित सूचना इस उपधारा के अधीन अपवर्जित नहीं की जाएगी:
परन्तु यह और कि यदि मांगी गई सूचना मानव अधिकारों के अतिक्रमण अभिकथनों से संबंधित है तो सूचना राज्य सूचना आयोग के अनुमोदन के पश्चात् ही दी जाएगी और धारा 7 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसी सूचना अनुरोध की प्राप्ति के पैंतालीस दिनों के भीतर दी जाएगी।
(5) उपधारा (4) के अधीन जारी की गई प्रत्येक अधिसूचना राज्य विधान मंडल के समक्ष रखी जाएगी।
यह धारा प्रावधान करती है कि अधिनियम कतिपय संगठनों को लागू नहीं होगा। यह धारा प्राधिकारियों को, जिनकी सूची द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट की गयी है, सामान्य जनता के समक्ष सूचना प्रकटन करने का समादेश देती है। ये छूट राज्य की सुरक्षा के हित में और सुरक्षा संगठनों के समुचित कार्य करने के लिए निर्मित किये गये हैं।
यह धारा केवल उस सूचना को मुक्त करती है, जो सीधे आसूचना और भारत की सुरक्षा से सम्बन्धित है और भ्रष्टाचार के अभिकथन से सम्बन्धित सूचना छूट खण्ड के अधीन आच्छादित नहीं है।
अधिसूचना का भूतलक्षी प्रभाव नहीं:-
कतिपय संगठनों को छूट देने वाली अधिसूचना को भूतलक्षी प्रभाव नहीं दिया जा सकता था। यह निर्णय चीफ इन्फार्मेशन कमिश्नर बनाम स्टेट ऑफ मणिपुर, ए आई आर 2012 एस सी 864 के मामले में दिया गया है।
शक्ति का क्षेत्र अधिनियम के उपबन्धों से छूट देने को शक्ति राज्य सरकार को उपलब्ध नहीं है। मानवीय अधिकारों के उल्लंघन तथा भ्रष्टाचार से सम्बन्धित सूचना के सम्बन्ध में भी सरकार को छूट देने की नहीं है।
छूट प्राप्त संगठन से सम्बन्धित सूचना को उचित रूप से नामंजूर किया गया:-
यदि एक बार सूचना डी० आर० आई० से उसको अवस्थिति के बावजूद सम्बन्धित है, तो वह द्वितीय अनुसूची के साथ पठित धारा 24 (1) के अधीन छूट द्वारा आच्छादित की जाएगी।
कोई अपवर्जन नहीं मानव अधिकार उल्लंघन से सम्बन्धित सूचना इस धारा के अधीन अपवर्जित नहीं की जा सकती।
भ्रष्टाचार और मानव अधिकार से सम्बन्धित सूचना अपवर्जित नहीं की जा सकती।
सूचना जो छूट प्राप्त संगठन से सम्बन्धित की गयी है, हालांकि अन्य लोक प्राधिकारियों द्वारा उनको फाइल पर धारण की गयी है, द्वितीय अनुसूची के साथ पठित धारा 24 के अधीन प्रकट किये जाने की आवश्यकता नहीं है।
डी आर आई द्वारा उपयोग की गयी छूट की प्रकृति:-
राजस्व आसूचना निदेशालय द्वारा उपयोग की गयी छूट आत्यंतिक और अप्रवर्तनीय है, जब तक यह विश्वास करने का कारण नहीं है कि भ्रष्टचार और मानव अधिकार के अभिकथन अन्तर्ग्रस्त है।
उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण करने का परीक्षार्थी का अधिकार:-
जब अभ्यर्थी परीक्षा में भाग लेता है तथा अपने उत्तरों को उत्तर पुस्तिका में लिखता है तथा उसे परीक्षा लेने वाले निकाय को मूल्यांकन तथा परिणाम की घोषणा के लिए प्रस्तुत करता है, तब उत्तर पुस्तिका एक दस्तावेज अथवा अभिलेख है। जब परीक्षा लेने वाले निकाय द्वारा नियुक्त किसी परीक्षक द्वारा उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन किया जाता है, तब मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें परीक्षक के मत को अन्तर्विष्ट करने वाला एक अभिलेख हो जाता है। अत: मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें भी "सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" के अधीन सूचना है। परीक्षा लेने वाले निकायों (विश्वविद्यालय, परीक्षा परिषद, सी बी एस ई आदि) न तो सुरक्षा, न हो आसूचना संगठन है और अतः उन पर अधिनियम की धारा 24 लागू नहीं होगी।
उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में सूचना का प्रकटन किसी प्रतिलिप्याधिकार के अतिलंघन को भी संलिप्त नहीं करता है और इसलिये आर टी आई अधिनियम की धारा 9 लागू नहीं होगी। परिणामस्वरूप, जब तक परीक्षा लेने वाला निकाय यह सम्प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं है कि मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें धारा 9 की उपधारा (1) के खण्ड (क) से (ज) में उल्लिखित छूट प्राप्त सूचना के वर्गों में से किसी के अधीन आती हैं, तब तक वे सूचना तक पहुंच प्रदान करने के लिये बाध्य होगी और कोई आवेदक या तो दस्तावेज/ अभिलेख का निरीक्षण कर सकता है, नोट्स या उद्धरण ले सकता है या उसकी अधिप्रमाणित प्रति ले सकता है।
इस प्रकार अब यह सुस्थापित है कि उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण या प्रकटन या उत्तर पुस्तिकाओं के पुनर्मूल्यांकन पर रोक लगाने वाला और अभ्यर्थियों का उपचार केवल पुनर्योग तक निबंन्धित करने वाला प्रावधान वैध और परीक्षार्थियों पर बाध्यकारी है। सी बी एस ई के मामले में पुनर्मूल्यांकन और उपनियम संख्या 61 में समाविष्ट निरीक्षण को वर्जित करने का प्रावधान नियम 104 के समान है जिस पर महाराष्ट्र राज्य बोर्ड (1984) 4 एस सी सी 27 के प्रकरण में विचारण किया गया था।
परिणामस्वरूप, यदि कोई परीक्षा केवल परीक्षा लेने वाले निकाय की नियमावली और विनियमों द्वारा नियंत्रित है जो निरीक्षण प्रकटन या पुनर्मूल्यांकन को वर्जित करती है, तो परीक्षार्थीगण यह जांच करते हुये केवल पुनर्योग के लिये हकदार होंगे कि क्या सभी उत्तरों का मूल्यांकन किया गया है और अग्रेतर यह जांच कि क्या यहां प्रत्येक प्रश्न के अंकों के योग में कोई त्रुटि नहीं है और अंकों को सही प्रकार से शीर्षक (सार) पृष्ठ पर अंतरित किया गया है। स्थिति, हालांकि, भिन्न हो सकती है, यदि एक उच्चतर सांविधिक अधिकार उत्तर पुस्तिकाओं तक सूचना के रूप में पहुँच को ईप्सा करने वाले नागरिक के रूप में परीक्षार्थियों को हकदार बनाती है।
आर टी आई अधिनियम की धारा 22 यह प्रावधान करती है कि उक्त अधिनियम के प्रावधान तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में समाविष्ट उससे असंगत किसी बात के होते हुये भी प्रभावी होंगे। अतएव, आर टी आई अधिनियम के प्रावधान परीक्षा आयोजक निकाय के उपनियमों/नियमावलो के प्रावधानों पर परीक्षाओं के बारे में प्रभावी होंगे।
परिणामस्वरूप, जब तक परीक्षा आयोजक निकाय यह सम्प्रदर्शन करने में समर्थ नहीं होता है कि उत्तर पुस्तिकायें आर टी आई अधिनियम की धारा 8 (1) फे खण्ड (ङ) में वर्जित सूचना के छूट प्राप्त के अंतर्गत आती है, तब तक परीक्षा आयोजक निकाय परीक्षार्थी को अपनी मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण करने और प्रतियां लेने के लिये पहुंच प्रदान करने के लिये बाध्य होंगी, भले ही ऐसा निरीक्षण या प्रतियों का लिया जाना परीक्षाओं का प्रबन्ध करने वाले परीक्षा आयोजक निकाय को नियमावली/उपनियमों के अधीन वर्जित है।
अतएव, महाराष्ट्र राज्य बोर्ड (उक्त) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय का विनिश्चय और उसी का अनुसरण करते हुये पश्चात्वत विनिश्चय उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण या उसको अधिप्रमाणित प्रति लेने की ईप्सा करते हुये परीक्षार्थों के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा या उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा।
शब्द 'वैश्वासिक' किसी एक अन्य के लाभार्थ कार्यकरण के लिये कर्तव्य रखने वाले व्यक्ति को निर्दिष्ट करता है, जो शुद्ध विश्वास और विश्वस्तता को दर्शित करता है, जहां ऐसा अन्य व्यक्ति कर्तव्य का निर्वहन करने वाले या धारित करने वाले व्यक्ति में न्यास और विशेष विश्वास दर्शित करता है। शब्द 'वैश्वासिक सम्बन्ध' किसी स्थिति या संक्रिया का वर्णन करने के लिये प्रयोग किया जाता है जहां व्यक्ति (लाभार्थी) एक अन्य व्यक्ति (वैश्वासिक) में उसके कार्यों, व्यापार या संक्रिया/संक्रियाओं के बारे में पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है।
शब्द ऐसे व्यक्ति को भी निर्दिष्ट करता है जो न्यास में अन्य व्यक्ति (लाभार्थी) के लिये किसी चीज को धारित करता है। विश्वासी से लाभार्थी के लाभ एवं कल्याण हेतु तथा उसके विश्वास में कार्य की आशा की जाती है और लाभार्थी सम्बन्धित बीजों के साथ व्यवहार करने में शुद्ध विश्वास और शुद्धता का प्रयोग करता है।
दार्शनिक एवं अति व्यापक भावबोध में परीक्षा आयोजक निकायों को एक वैश्वासिक क्षमता में कार्य करने वाला कहा जा सकता है, विद्यार्थियों के संदर्भ में, जो परीक्षा में शामिल होते हैं, जैसा कि सरकार अपने नागरिकों को नियंत्रित करने में करती है या जैसा कि वर्तमान पीढ़ी पर्यावरण की संरक्षा करते समय भविष्य की पीढ़ी के संदर्भ में करती है।
एक व्यक्ति को उसके वैश्वासिक सम्बन्धों में शब्दों को उपबन्ध सूचना को सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) (ङ) में इसके सामान्य एवं मान्यता प्राप्त भाव में प्रयुक्त किया गया, यह उन व्यक्तियों को निर्दिष्ट करने के लिये है जो वैश्वासिक क्षमता में विनिर्दिष्ट लाभार्थी या लाभार्थियों के संदर्भ में कार्य करता है जो वैश्वासिक न्यासी को न्यास के लाभार्थियों के संदर्भ में कार्यवाही द्वारा संरक्षित या लाभान्वित होने के लिये प्रत्याशित है, जैसे कि कोई संरक्षक अल्प वयस्स्क/शारीरिक रूप से बलहीन/मानसिक रूप से कुंद के संदर्भ में, माता-पिता बच्चों के संदर्भ में, अधिवक्ता या चार्टर्ड एकाउण्टेंट मुवक्किल के संदर्भ में चिकित्सक या नर्स मरीज के संदर्भ में, अभिकर्ता प्रधान के संदर्भ में भागीदार अन्य भागीदार के संदर्भ में, कम्पनी का निर्देशक अंशधारक के संदर्भ में निष्पादक वसीयतों के संदर्भ में, प्रापक याद के पक्षकारों के संदर्भ में, नियोक्ता कर्मचारी से सम्बन्धित गोपनीय सूचना के संदर्भ में और कर्मचारी नियोक्ता के व्यापारिक व्यवहारों/संक्रियाओं के संदर्भ में करने हेतु प्रत्याशित है। परीक्षा आयोजक निकाय और परीक्षार्थी के मध्य कोई ऐसा वैश्वासिक सम्बन्ध मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में नहीं है जो परीक्षा आयोजक निकाय को अभिरक्षा में आती है।
अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि परीक्षा आयोजक निकाय या तो परीक्षार्थी के संदर्भ में जो परीक्षा में शामिल होता है और जिसको उत्तर पुस्तिकायें परीक्षा अयोजक निकाय द्वारा मूल्यांकित की जाती हैं, वैस्वासिक सम्बन्ध में है।
सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) (ङ) यह प्रावधान करती है कि अधिनियम में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुये भी, किसी नागरिक की किसी व्यक्ति को उसके वैश्वासिक सम्बन्ध में उपलब्ध सूचना देने की कोई बाध्यता नहीं होगी। इसका तात्पर्य केवल यह होगा कि यदि सम्बन्ध वैश्वासिक भी है तो भी छूट पर पक्षों को वैश्वासिक सम्बन्ध में धारित सूचना तक पहुंच प्रदान करने लिये प्रवृत्त होगी। वैश्वासिक का स्वयमेव लाभार्थी से लाभार्थी के सम्बन्ध में सूचना रोकने का कोई प्रश्न नहीं है।
लाभार्थी के मध्य सभी संक्रियाओं के सभी सुसंगत तथ्यों का सम्पूर्ण प्रकटन वैश्वासिक के कर्तव्यों में से एक है। उस तर्क द्वारा परीक्षा आयोजक निकाय, यदि यह परीक्षार्थी के साथ वैश्वासिकसम्बन्ध में है, तो यह परीक्षार्थी को मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं को पूर्ण प्रकटन करने के लिये दायी होगी और उसी समय परीक्षार्थी के लिये किसी अन्य को उत्तर पुस्तिकाओं का प्रकटन नहीं करने के लिये कर्तव्य धारित करेगी।
अतएव, यदि वैश्वासिक एवं लाभार्थी का सम्बन्ध उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में परीक्षा आयोजक निकाय एवं परीक्षार्थी के मध्य कल्पित किया जाता है तो धारा 8 (1) (ङ) किसी पर पक्षकार तक पहुंच रोकने के लिये छूट के रूप में प्रवृत्त होगी और उस व्यक्ति विशेष के लिये वर्जना के रूप में नहीं प्रवृत्त होगी जिसने उत्तर पुस्तिकायें दूसरे प्रकटन या निरीक्षण की ईसा करते हुये लिखी।
जब किसी परीक्षार्थी को उत्तर पुस्तिका की परीक्षा करने या अधिप्रमाणित प्रति प्राप्त करने की अनुमति दी जाती है तो परीक्षा अयोजक निकाय वास्तव में उसे कोई सूचना नहीं देता जो उसके द्वारा न्यास या विश्वास में धारित है, बल्कि केवल उसे जो कुछ उसने परीक्षा के समय लिखा था, उसे पढ़ने या अपने उत्तरों की प्रति पाने का अवसर प्रदान कर रहा है।
अतएव, उत्तर पुस्तिका की प्रति प्रदान करने में गोपनीयता, निजता या न्यास के भंग होने का कोई प्रश्न नहीं है। अतएव वास्तविक विवाद्यक, उत्तर पुस्तिका के बारे में नहीं है, बल्कि उत्तर पुस्तिका के मूल्यांकन पर दिये गये अंकों के बारे में है। यहां भी परीक्षार्थी को उसकी उत्तर पुस्तिका के बारे में दिये गये कुल अंक पहले ही घोषित कर दिये गये हैं और परीक्षार्थी को ज्ञात है।
जो कुछ परीक्षार्थी वास्तव में जानना चाहता है वह उसे दिये गये अंकों का विवरण है, अर्थात् उसके प्रत्येक उत्तर के लिये परीक्षक द्वारा उसे कितने अंक दिये गये थे जिससे कि यह निर्धारण कर सके कि कैसे उसके सम्पादन का मूल्यांकन किया गया है और क्या मूल्यांकन उसकी उम्मीदों और प्रत्याशाओं के अनुसार समुचित है। अतएव, इस बात का पता लगाने के लिये परीक्षण कि क्या सूचना छूट प्राप्त है या नहीं यह उत्तर पुस्तिका के बारे में नहीं है, बल्कि परोक्षक द्वारा मूल्यांकन के बारे में है।
परीक्षा आयोजक निकाय उत्तर पुस्तिकाओं को मूल्यांकन हेतु परीक्षक को सौंपता है और परीक्षक को उसकी विशेषज्ञ सेवा हेतु भुगतान करता है। मूल्यांकन का कार्य और उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन परीक्षा अयोजक निकाय द्वारा परीक्षक को दिया गया समनुदेशन है जिसका निर्वहन वह प्रतिफल के लिये करता है।
कभी-कभी परीक्षक अपने नियोजक के अनुक्रम में उत्तर पुस्तिकाओं का निर्धारण किसी विनिर्दिष्ट या विशेष पारिश्रमिक के बगैर अपने कर्तव्य के भाग के रूप में कर सकता है। दूसरे शब्दों में परीक्षा आयोजक निकाय 'प्रधान' है और परीक्षक सौंपे गये कार्य, अर्थात् उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का अभिकर्ता है।
अतएव परीक्षा आयोजक निकाय परीक्षक के संदर्भ में वैश्वासिक स्थिति में नहीं है। दूसरी ओर, जब परीक्षक को उत्तर पुस्तिका मूल्यांकन के प्रयोजनार्थ सौंपी जाती है, तो उस अवधि के लिये उत्तर पुस्तिका उसकी अभिरक्षा में होती है और मूल्यांकन से सम्बन्धित अपने कार्य के निर्वहन तक परीक्षक परीक्षा अयोजक निकाय के संदर्भ में एक वैश्यासिक स्थिति में होता है और वह उत्तर पुस्तिकाओं की अंतर्वस्तुओं या उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का परिणाम परीक्षा आयोजक से अन्यथा किसी व्यक्ति को प्रकट करने से वर्जित होता है।

जब एक बार परीक्षक ने उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन कर लिया है, तो उसका उसके द्वारा लिये गये मूल्यांकन में कोई हित रखना समाप्त हो जाता है। यह मूल्यांकन के सम्बन्ध में कोई प्रतिलिप्याधिकार या साम्पत्तिक अधिकार या गोपनीयता का अधिकार नहीं रखता है। अतएव, यह नहीं कहा जा सकता है कि परीक्षा अयोजक निकाय परीक्षक के सम्बन्ध में मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के वैश्वासिक सम्बन्ध में धारित करता है।
परीक्षा आयोजक निकाय वैश्वासिक सम्बन्ध में मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें नहीं धारित करता है। अपने वैश्वासिक सम्बन्ध में परीक्षा अयोजक निकाय को सूचना उपलब्ध नहीं होने से परीक्षा आयोजक निकायों को मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) (ङ) के अधीन छूट उपलब्ध नहीं है। चूंकि मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के सम्बन्ध में धारा 8 के अधीन कोई अन्य छूट उपलब्ध नहीं है, अतः परीक्षा आयोजक निकायों को परीक्षार्थियों द्वारा ईप्सित निरीक्षण की अनुमति देनी होगी।

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सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 11 अधिनियम के अंतर्गत शास्ति (दंड) (धारा- 20)
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 9 सूचना आयोगों की शक्तियां (धारा- 18)
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 7 वह विषय जिन से संबंधित सूचनाओं को नहीं दिया जाएगा (धारा-8)
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 8 पर व्यक्ति को सूचना (धारा-11)
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