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महाराज और राजा मैं बड़ा अंतर है

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महाराज और राजा में बड़ा अंतर है ।
सिंधिया परिवार को महाराज और दिग्विजय सिंह परिवार को राजा ।

भोपाल से संपादित न्युज महादण्ड.काम 
--- देश को आजाद हुए 75 वर्ष होने पर भी आज जनता और मीडिया दोनों ही महाराज और राजा शब्द को नहीं भूल पा रही है । नई पीढ़ी के सोच में बदलाव देखने को मिल रहा है , जहां तक मैं समझता हूं कि इन दोनों ही परिवारों ने कभी नहीं कहा होगा कि हमें इस तरह संबोधित करें परन्तु चाटुकार लोगों ने अभी भी कुछ ऐसा ही बना रखा है ।
 राजनीति में सक्रिय दोनों खानदानों के बीच 200 साल से ज्यादा पुरानी है वर्चस्व की लड़ाई
मध्यप्रदेश की राजनीति में लंबे समय तक राज परिवारों का दखल रहा है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया, माधवराव सिंधिया, अर्जुन सिंह, गोविंद सिंह, पुष्पराज सिंह और दिग्विजय सिंह वो चर्चित नेता हैं​ जिनका सीधा संबंध राज परिवारों से है। ग्वालियर, रीवा, सीधी और राघोगढ़ वो शहर हैं जो कभी रियासत थे और आज राजनीति में सक्रिय हैं
सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच अलगाव दो शताब्दी पुराना है। 
आजादी के बाद देश से राजाओं का राजपाट समाप्त हो गया। जो रियासतें थीं वो राज्यों में तब्दील हो गईं और राजाओं की शाही शानो-शौकत राजनीति के रास्ते फिर बहाल हो गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में कई ऐसे नेता राजनीति में आए, जो राजघरानों से नाता रखते थे। मध्यप्रदेश भी कई रियासतों को मिलाकर बना था। यहां कई राजाओं ने राजनीति के माध्यम से लोकतांत्रिक तरीके से शासन भी किया। लेकिन यहां के दो राजपरिवार सबसे ज्यादा चर्चित हैं एक है ग्वालियर का सिधिंया परिवार और दूसरा राघोगढ़ का दिग्विजय सिंह परिवार ।
मध्यप्रदेश की राजनीति में दो घटनाएं महत्वपूर्ण हैं। एक घटना 28 साल पुरानी है तो दूसरी 205 साल ज्यादा पुरानी। दोनों ही कहानियों के केंद्र में राज्य के सर्वाधिक चर्चित और शक्तिशाली परिवार हैं। हम बात कर रहे हैं ग्वालियर के सिंधिया और राघोगढ़ के दिग्विजय सिंह परिवार की। पिछले साल यानी 2020 में ज्योतिरादित्य सिधिंया ने कांग्रेस का दामन छोड़ दिया था और भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। इस घटना की वजह से मध्यप्रदेश में कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी और शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद मिल गया था।
लेकिन इस कहानी की शुरूआत का कारण राजनीति नहीं था, बल्कि यह दो राजपरिवारों की उस आपसी टसल का नतीजा थी, जिसके बीज आजादी से 130 साल पहले पड़ गए थे। सन 1816 में सिंधिया घराने के राजा दौलतराव सिंधिया (माधवराव सिंधिया के परदादा) ने राघोगढ़ के सातवें राजा जयसिंह (दिग्विजय सिंह के पूर्वज) को युद्ध में हरा दिया था। इसके बाद राघोगढ़ को तब के ग्वालियर साम्राज्य के अधीन होना पड़ा था ।
फिर आया 1993 और उस समय मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए दिग्विजय सिंह और माधव राव सिंधिया का नाम शीर्ष पर था। लेकिन बाजी मारी दिग्विजिय सिंह ने। इससे पहले 1985-90 में राजीव गांधी के चाहने के बाद भी माधवराव राज्य के मुख्यमंत्री नहीं बन सके थे। उस समय अर्जुन सिंह और मोतीलाल वोरा को कुर्सी मिली ।राजनीतिक वि‌श्ले‌षकों का मानना था कि 1993 में दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री बनकर एक प्रकार से अपने पूर्वज की हार का हिसाब बराबर किया था। 2018 में ज्योतिरादित्य सिंधिया और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद के बीच की दूरी की प्रमुख वजह दिग्विजय सिंह ही थे। ज्योतिरादित्य की मदद खुद राहुल गांधी भी नहीं कर सके थे। इसका बदला सिंधिया ने 2020 मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को गिराकर लिया था, जिसमें दिग्विजय के बेटे भी मंत्री थे।

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