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क्या पूरे देश के किसानों को उनकी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य देना संभव है,

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क्या पूरे देश के किसानों को उनकी फसल  का न्यूनतम समर्थन मूल्य देना संभव है, 

भोपाल से संपादित जिग्नेश पटेल की रपट,
कहां से आयेगा पैसा और अर्थव्यवस्था पर क्या पड़ेगा असर 
केंद्र सरकार जितना फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है, उसे सरकारी राशन की दुकानों (पीडीएस सिस्टम) के माध्यम से निःशुल्क या बेहद कम मूल्य पर गरीब जनता को उपलब्ध कराया जाता है। लेकिन सभी कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा राशन वितरण के बाद भी सरकार के पास पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न प्रति वर्ष बच जाता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर किसानों की बड़ी मांग पूरी कर दी है। लेकिन अब किसानों की मांग है कि उन्हें ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ पर पूरी फसल बिक्री का ‘कानूनी गारंटी’ अधिकार मिलना चाहिए। इसके बिना वे अपने घर वापस नहीं लौटेंगे। लेकिन क्या केंद्र सरकार पूरे देश के किसानों की पूरी फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की स्थिति में है? यदि किसानों को यह अधिकार दिया जाता है तो इसके लिए पैसा कहां से आएगा और खुले बाजार में गेहूं-दाल की कीमतों पर इसका क्या असर पड़ेगा? क्या आम आदमी इसे खरीदने में सक्षम होगा?
वर्तमान में देश प्रति वर्ष 30.8 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन करता है। केंद्र सरकार जितना फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है, उसे सरकारी राशन की दुकानों (पीडीएस सिस्टम) के माध्यम से निःशुल्क या बेहद कम मूल्य पर गरीब जनता को उपलब्ध कराया जाता है। लेकिन सभी कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा राशन वितरण के बाद भी सरकार के पास पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न प्रति वर्ष बच जाता है।
फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (FCI) खरीद की गई फसलों को रखने के लिए पर्याप्त जगह तक उपलब्ध नहीं करा पाता। प्रति वर्ष लाखों टन अनाज खुले आकाश के नीचे पड़ा रहता है। इनके सड़ने, चूहों के द्वारा खा जाने और खराब अनाज को शराब कंपनियों को बेहद कम मूल्य पर बेचे जाने की खबरें आती रहती हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि केंद्र सरकार को इससे अधिक फसलों की खरीद क्यों करनी चाहिए, और इसके लिए अतिरिक्त धन कहां से आएगा?
किसान दूध, जिसका वार्षिक उत्पादन 20.4 लाख मिट्रिक टन के रिकॉर्ड उत्पादन तक पहुंच गया है, जैसे उत्पादों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के अंतर्गत लाने की मांग कर रहे हैं जो इस समय खुले बाजार में ही बेचा जाता है। देश में प्रति वर्ष 32.5 लाख मिट्रिक टन सब्जी-फल का उत्पादन भी करते हैं। कुछ किसान इसे भी न्यूनतम  समर्थन मूल्य के अंतर्गत लाने की मांग करते हैं।   
दूर हो गलतफहमी
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने  कहा कि लोगों का यह भ्रम दूर होना चाहिए कि किसान अपनी पूरी फसल की खरीद केवल केंद्र सरकार के माध्यम से कराना चाहते हैं। किसानों की मांग है कि फसल की खरीद कहीं भी हो, सरकारी मंडियों में, प्राइवेट कंपनियों के द्वारा या खुले बाजार में, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर नहीं होना चाहिए।
जैसे दवाइयों का उच्चतम खुदरा मूल्य या एमआरपी  होता है, जिससे दुकानदार दवा को निर्धारित मूल्य से अधिक कीमत पर नहीं बेच पाता, उसी प्रकार फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित होना चाहिए, जिससे उस फसल को निर्धारित कीमत से कम मूल्य पर न खरीदा-बेचा जा सके। इससे केंद्र सरकार पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं आएगा और किसानों को खुले बाजार के जरिए बेहतर कीमत मिलने लगेगी।
फसल बाजार में न बिकने पर किसानों को केंद्र सरकार के द्वारा उसकी खरीद की गारंटी भी मिलनी चाहिए। इससे केंद्र सरकार पर कुछ अतिरिक्त भार पड़ सकता है, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा इसका वहन किया जाना चाहिए।
क्या महंगाई नहीं बढ़ेगी?
यदि किसानों की हर फसल का एक निर्धारित मूल्य तय कर दिया जाएगा तो क्या इससे आवश्यक खाद्यान्न की कीमत बहुत ऊंची नहीं हो जाएगी? क्या आम आदमी इस कीमत पर खाद्यान्न खरीद पाने में सक्षम होगा? देविंदर शर्मा कहते हैं कि जब केंद्रीय कर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग लागू किया गया था, तब भी केंद्र-राज्य  सरकारों पर वित्तीय बोझ बढ़ा था। लेकिन तब कर्मचारियों के दबाव में सरकार ने इसे वहन किया था, इसलिए सरकार को यह अतिरिक्त बोझ भी वहन करना चाहिए।
ध्यान रहे कि जब केंद्र सरकार ने पांचवां, छठां और सातवां वेतन आयोग लागू किया था, औद्योगिक सेक्टर के द्वारा इसका स्वागत किया गया था। क्योंकि औद्योगिक सेक्टर का मानना था कि इससे केंद्रीय कर्मचारियों के हाथों में ज्यादा पैसा आएगा, यह पैसा वे बाजार में खर्च करेंगे और इससे ज्यादा वस्तुओं की मांग बढ़ेगी। इससे औद्योगिक क्षेत्र को बढ़ने में मदद मिलेगी। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि किसानों की आय बढ़ने से भी उसी प्रकार के असर पैदा होंगे। किसानों की आय बढ़ेगी तो वे बाजार में ज्यादा वस्तुओं की खरीद करने में सक्षम होंगे और औद्योगिक कंपनियों की स्थिति सुधरेगी।
1976 में एक क्विंटल गेहूं का मूल्य 76 रूपये प्रति क्विंटल था जो अब 25 गुना बढ़कर 2015 रूपये प्रति क्विंटल (न्यूनतम समर्थन मूल्य) हो चुका है। उस समय की तुलना में आज एक प्रोफेसर की मासिक आय में 150 से 170 गुना तक और एक अध्यापक के वेतन में 280 से 300 गुना तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। ऐसे में केवल किसानों की आय उसी के अनुरूप क्यों नहीं बढ़नी चाहिए जो दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बेहद निम्न स्तर पर ठहरी हुई है।
विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया में प्राइवेट सेक्टर के कर्मचारियों के वेतन की तुलना में उसी काम के लिए सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों का वेतन 120 से 150 प्रतिशत तक ज्यादा है। लेकिन भारत में आश्चर्यजनक तरीके से यह वेतन 700 प्रतिशत ज्यादा है। यह लाभ देश के 70 प्रतिशत आबादी वाले किसानों को क्यों नहीं मिलना चाहिए?
पूरी दुनिया में आर्थिक विकास के वर्तमान मॉडल की कड़वी सच्चाई यह है कि अमीर वर्ग लगातार अमीर हो रहा है और गरीब वर्ग और ज्यादा गरीब होता जा रहा है। पूरा पैसा चंद अमीर घरानों के हाथों में एकत्र होता जा रहा है। इस पैसे का पूरी जनता में विक्रेंद्रीकरण होना चाहिए और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए ज्यादा पैसा देना इसका एक कारगर हथियार हो सकता है। और चूंकि, यह पैसा किसान अंततः बाजार में ही खर्च करेंगे, इससे बाजार में वस्तुओं की मांग बढ़ेगी और देश की अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी।
देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही मिलता है। यदि बाकी के 94 प्रतिशत किसानों को भी इसका लाभ मिले तो इससे निचले तबकों के लोगों का जीवन स्तर बेहतर होगा। देश में सरकारी और प्राइवेट सेक्टर मिलाकर केवल 7 प्रतिशत लोगों को वेतन मिलता है, बाकी 93 प्रतिशत लोग निजी काम-व्यापार या खुले बाजार में अनियमित कमाई के भरोसे हैं। यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ दिया जाता है तो इससे बड़ी आबादी की आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद मिलेगी।
एक बड़ा तर्क दिया जाता है कि यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया जाता है तो इससे फसलों की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार की तुलना में बढ़ जाएगी। इससे निजी कंपनियां-व्यापारी विश्व बाजार से खाद्यान्न खरीदेंगी और किसानों की फसल नहीं बिकेगी। इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करने से लाभ की जगह नुकसान हो जाएगा।
लेकिन इसे नियमित किए जाने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार फसलों की खरीद के लिए नियम बनाकर इसे केवल उन्हीं वस्तुओं तक सीमित कर सकती है जिसकी देश में कमी हो। किसानों को अतिरिक्त सब्सिडी देकर भी उनकी उपज को अंतरराष्ट्रीय बाजार की तुलना में बेहतर बनाया जा सकता है।         
केंद्र सरकार ने अपने कृषि कानूनों को किसानों के लिए खुला बाजार उपलब्ध कराने की मंशा से बेहतर बताया था। लेकिन ध्यान देने की बात है कि पूरी तरह खुले बाजार पर आधारित होने के बाद भी अमेरिकी-यूरोपीय किसान लाभ की स्थिति में नहीं हैं। उनकी सरकारों की भारी सब्सिडी के आधार पर ही उन्हें बेहतर कीमत की स्थिति में लाया जाता है। अपने देश में भी 94 प्रतिशत किसान आज भी खुले बाजार में अपनी फसल बेचते हैं। यदि खुला बाजार उनके लिए लाभ का सौदा होता तो इन किसानों की स्थिति बेहतर होती। लेकिन इन किसानों की स्थिति बताती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के बिना खुला बाजार किसानों के लिए लाभदायक नहीं है

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